Monday, July 18, 2011

JAD AAUR CHATAN

कभी सोचा है दुःख क्यों होता है
ये हृदय क्यों रोता है
आँख क्यों आँशु बहता है
मन उदास हो जाता है
चेतन कहती है सब कहने की बाते है
पाया वही जो तुमने बाटें है
जड़ शारीर भी कहाँ कम था
अपने "मै " में वो भी तो गुम था
बोला हँशी खुशी गम और दुख
सब तो एक भंगीमा है
जो तेरे साथ ही जन्मा है
इस संसारिक नाटक में
हर भाव निभाना है
अगर हँसा है
तो रो के भी दिखाना है
चेतना बोली सब तेरी तृष्णा है
जो तुझे नचाता है
मन को बावला बनाता है
पा गया तो खुश छुट गया तो दुख
स्थुल शारीर ही जडता की पराकाष्टा है
चेतना तो स्वछ सरल आस्था है
जो हर जड शरीर में समाहित है
और तुमने भी पाई है
कितना अच्छा होता अगर दोनो मिल जाते
इन्सान उस बनाने वाले के श्रेणी में आ जाते
साब भाव से उपर
सम शुशील सुन्दर
पर ऐसा कहा हो पाता है
इंसान जडता में ही खो जाता है
चेतना तो शुसूप्त है
कुछ ही जगा पाते है
शेष रोते हुए आते है
रोते चले जाते है